दोहा / भाग 4 / रामसहायदास ‘राम’
वे नीके नीकी इहौ, क्यौं फीकी परै चाह।
दुहुँ दिसि नेह निबाह पैं, वाह वाह है वाह।।31।।
त्रिबिध प्रभंजन चलि सुरभि, करत प्रभंजन धीर।
तन मन गंजन अलि प्रभृत, बिन मनरंजन बीर।।32।।
चितवै चित आनन्द भरि, चारु चन्द्र की ओर।
प्रीति करन की रीति कों, सिखवै चातुर चकोर।।33।।
मन-खेलार तन चंग नव, उड़त रंग रस डोर।
दूरहि डोर बटोर जब, जब पारै तब ठोर।।35।।
यह अहनिसि बिकसित रहै, वह निसि मैं कुँभिलाय।
यातै तो मुख कमल लौं, कहो कहो किमि जाय।।36।।
काहि छला पहिराव री, हों बरजी बहु बार।
जाय सही नहिं बावरी, मिहदी रंग को भार।।37।।
इक दृग पिचकारी दई, इकहि लई ही लाय।
सखी बिहारी दिसि लखो, रसनहिं दसन दबाय।।37।।
चलनि भली बोलनि भली, सुछवि कपोलनि आज।
तकि सौहैं चितवनि भली, भले बने ब्रजराज।।38।।
का केकी की काकली, का काली निसि चेन।
बन माली आए अली, बनमाली आए न।।39।।
नैन उनींदे कच छुटे, सुखहिं छुटे अंगिराय।
भोर खरी सारस मुखी, आरस भरी जभाय।।40।।