दोहा / भाग 5 / तुलसीराम शर्मा ‘दिनेश’
उसके शासन में नहीं, पक्षपात की भूल।
निर्भय होकर झगड़ती, जहाँ अग्नि से तूल।।41।।
चित के चरणों में चुभा, जिनके प्रेमल-फाँस।
आँसू पड़ते आह-युत, कढ़ते लम्बे साँस।।42।।
लाखों ही खुशियाँ भरीं, मेरे रोने बीच।
इन्हें न आँसू समझना, प्रेम-लता की सींच।।43।।
प्रेम चासनी की लगी, जिनके ओंठों चास।
अन्य साधनों में मिले, उनको कहाँ मिठास।।44।।
प्रेम अग्नि की देखिये, कैसी अद्भुत बात।
जिसमें जल कर ही सदा, शीतल होता गात।।45।।
जिनको रुचता हो सुनें, निर्गुण का व्याख्यान।
यहाँ चटोरे हो गये, वेणु-तान से कान।।46।।
प्रेम वस्त्र की देखिये, कैसी उलती रीत।
ज्यों-ज्यों धारण कीजिए, त्यों-त्यों लाज व्यतीत।।47।।
प्रेमी अटपट बोलता, होकर निपट अचेत।
मन्त्र न तन्त्र न यन्त्र है, कुपित प्रेम का प्रेत।।48।।
प्रेम रहित नर मृतक-सम, हरि को कब स्वीकार।
हरि जाता न समीप भी, समझ अरक्त शिकार।।49।।
रुकता कब आतंक से, आत्मिक प्रेम-प्रवाह।
रोक सके असि-गरल क्या, मीरा की कुछ चाह।।50।।