दोहा / भाग 5 / मतिराम
तरु ह्वै रह्यो करार कौ, अब करि कहा करार।
उर धरि नंदकुमार कौ, चरन कमल सुकुमार।।41।।
दिन-दिन दुगुन बढ़ै न क्यों, लगनि-अगिनि की झार।
उनै-उनै दृग दुहुनि कै, बरसत नेह अपार।।42।।
बढ़त-बढ़त बढ़ि जाइ पुनि, घटत-घटत घटि जाइ।
नाह रावरे नेह-बिधु, मंडल जितौ बनाइ।।43।।
प्रतिबिंबित तो बिंब में, भूतल भयो कलंक।
निज निरमलता दोष यह, मन में मानि मयंक।।44।।
तिहिं पुरान नव द्वै पढ़े, जिहिं जानी यह बात।
जो पुरान सो नव सदा, नव पुरान ह्वै जात।।45।।
उमगी उर आनंद की, लहरि छहरि दृग राह।
बूड़ी लाज-जहाज हों, नेह-नीर-निधि माह।।46।।
मानत लाज लगाम नहिं, नेक न गहत मरोर।
होत तोहिं लख बाल के, दृग तुरंग मुँह जोर।।47।।
हियें बसत मुख हसत हौ, हमकों करत निहान।
घट-घट व्यापी ब्रह्म तुम, प्रगट भए नँदलाल।।48।।
मेरे दृग बारिद वृथा, बरसत बारि प्रबाह।
उठत न अंकुर नेह कौ, तो उर ऊसर माँह।।49।।
राधा चरन सरोज नख, इन्द्र किए ब्रज चन्द्र।
मोर मुकुट चन्द्र कनि तूँ, चख चकोर अनंद।।50।।