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दोहा / भाग 5 / रत्नावली देवी

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आलस तजि रतनावली, यथा समय करि काज।
अब को करिबो अबहं करि, तबहिं पुरै सुख साज।।41।।

रतनावलि सब सों प्रथम, जगि उठि करि गृह काज।
सबनु सुवाइहि सोइ तिय, धरि सम्हारि गृह काज।।42।।

तू मृग श्री हरी धी रतन, तू तिय सकति महान।
तू अबला सबला बनै, धरि उर सती बिधान।।43।।

सास ससुर पति पद परसि, रतनावलि उठि प्रात।
सादर सेइ सनेह नित, सुनि सादर तेहि बात।।44।।

रतनावलि पति छांड़ि इक, जेते नर जग मांहिं।
पिता भ्रात सुत सम लषहु, दीरघ सम लघु आहिं।।45।।

सासु जिठानिहिं जननि सम, ननदहिं भगिनि समान।
रतनावलि निज सुत सरिस, देवर करहु प्रमान।।46।।

सौतिहि सखि सम व्यवहरौ, रतन भेद करि दूरि।
वासु तनय निज तनय गनि, लहौ सुजस सुख भूरि।।47।।

पति पितु जननी बंधु हितु, कुटुम परोसि बिचारि।
यथायोग आदर करै, सो कुलवंती नारि।।48।।

धन जोरति मित व्यय धरति, घर की वस्तु सुधारि।
सूप करम आचार कुल, पतिरत रतन सु नारि।।49।।

जे न लाभ अनुसार जन, मित व्यय करहिं बिचारि।
ते पाछे पछितात अति, रतन रंकता धारि।।50।।