दोहा / भाग 5 / राधावल्लभ पाण्डेय
धनिक-रीझ हित करत नर, पतित करम पति खोइ।
पंचामृत कहि पित्रत सब, लछिमी-पति-पद धोइ।।41।।
बड़े-बड़े हू बड़ेन के, गनत न कोउ गुनाह।
लक्ष्मी पितु लूट्यो सुरन, तऊ स्वर्ग के साह।।42।।
सहस चखन ताकत यहै, निशि बासर अमरेन्द्र।
बन्धु सवाँ असुमेघ तो, करत न कोउ नरेन्द्र।।43।।
छोटन की धन लूटि सों, सजत बड़न के भौन।
सिन्धु रतन तजि स्वर्ग में, बन्धु पदारथ कौन।।44।।
पापहु फलत बड़ेन को, चलत न हरि को चक्र।
चोरी-छल-व्यभिचार करि, सहस-नयन को सक्र।।45।।
स्वारथ हित लघुता गहत, बड़े बड़े तजि मान।
बौना भिक्षुक बनन में, लजे नहीं भगवान।।46।।
नाथ तोरि फेकत जुआ, गहत और ही गैल।
बन्धु गऊ को पूत जो, हो तो निरो न बैल।।47।।
वंश बड़ो है बल बड़ो, बन्धु चलत बड़ि चाल।
तऊ कहावत बैल क्यों, कामधेनु को लाल।।48।।
पराधीन बनि दिन भरत, गुनत न निज अधिकार।
नान्दी बन्धुहिं कस न फिर, बैल कहै संसार।।49।।
केतहु बैल कमाय अरू, बन्धु करै अनुराग।
पै भूसा तजि अन्न में, देहै मनुज न भाग।।50।।