दोहा / भाग 5 / रामेश्वर शुक्ल ‘करुण’
बढ़ो महा तम बक्र बनि, सरल भये दुख भार।
लखे सरल पशु-बक्र नहिं, होत मनुज आहार।।41।।
कारे-गोरे भेद, सों, कहँ बदलै आदर्स।
जैसे ‘बिड़ला-बन्धु’ हैं, त्यों ‘राली बादर्स।।42।।
श्याम पताका लै करहिं, गाँधी-स्वागत धाय।
रहे पताका मिस मनहुँ, उर-का रौंच दिखाय।।43।।
होत सदा जेहि आड़ लै, अत्याचार अपार।
क्यों न कहैं तेहि ‘धर्म’ कहँ, कोटि बार धिक्कार।।44।।
घोर विसमता-व्याधि तें, पावन चाहौ त्रान।
करहु उच्च स्वर सों सदा, साम्यवाद-गुन-गान।।45।।
कोटि कोटि हरिजन जहाँ बिलपहिं दीन-अधीन।
क्यों न होय तिहि जाति को, छिन-छिन जीवन छीन।।46।।
लदे लता-तरु पुंज तें, सोहत सुखद सुधाम।
नंदन-कुंज-निकुंज? नहिं, भारत-ग्राम ललाम।।47।।
नहि शिक्षा नहिं सभ्यता, तापै नित्य दुकाल।
ग्राम अभागे हिन्द के, हैं दारिद-दुःख जाल।।48।।
किते न ज्ञानी गुन-भरे, काहि न कौन सिखाय।
कौने तजी न शुभ-गली, सत्ता-मद बौराय।।49।।
बितवान, धर्मी, सुधी, पापी, वित बिहीन।
बित्ताराधन मैं सदा, देख्यों बिश्व-विलीन।।50।।