दोहा / भाग 7 / राधावल्लभ पाण्डेय
अनुचित उचित न सोचती, हरती है सम्मान।
भरी जवानी ताकतीं, काम भरी मुसकान।।61।।
जाल बिछाती फाँसती, करके यत्न महान।
ठगती भोले ‘बन्धु’ को, मतलब की मुसकान।।62।।
असमय समय न देखती, तनती अपनी तान।
रस में दै विष घोलती, नीघस की मुसकान।।63।।
सरसाती स्वर्गींय सुख, सबको ‘बन्धु’ समान।
शिशुओं की सुन्दर सहज, सुधा-सनी मुसकान।।64।।
शौल और संकोच का, बन्धु ठान कर ठान।
मन्द मधुर मधु घोलती, लज्जामय मुसकान।।65।।
ले लेतीं बे मोल है, तन-मन मोल समान।
चलता जादू डालती, प्रेम भरी मुसकान।।66।।
लक्ष्मी को बस में किये, भोगि रह्यो विज्ञान।
याही लाजन हैं छिपे, परदे में भगवान।।67।।
दलति नहीं दुखी करि दया, दीन-दयाल कहाय।
दीनन को भगवान मुँह, कैसे सकत दिखाय।।68।।
थाहे गुण्डन की चलनि, क्यों किसान बेताब।
सब के समुहें आइ कै, देवो परै जवाब।।69।।
भेद खुलन को भय भये, समुहे वाद-विवाद।
मूँदी निबही जाति है, परदे में मरजाद।।70।।