दोहा / भाग 8 / रामेश्वर शुक्ल ‘करुण’
शस्य-श्यामला भूमि जहँ, रही रम्य सरसाय।
झील भरी तहँ देखिये, मील पचीसन हाय।।71।।
पर-कारज साधहिं सदा, तजि सुख स्वार्थ अनन्त।
पदम-पत्र जिमि जग जियें, धनि धनि सन्त महन्त।।72।।
साधु-चरित नवनीत सो, कह्यो कबीन वृथाहिं।
वह अपने आतम द्रवैं, यह दूजे-दुख माहिं।।73।।
नुरे अथाइन जहँ सुजन, बही ज्ञान की गंग।
अब उन मठन बिलोकिये, गाँजा भंग प्रसंग।।74।।
लखे द्रब्य-दारानि के, अपरिग्रह सम्राट।
खुलहिं देव-दासीन सों, तिनके ज्ञान कपाट।।75।।
ब्यभिचारी, लम्पट, ठगी, अपढ़, असाधु, असन्त।
बनि बैठे अब धर्म के, ठेकेदार महन्त।।76।।
पीवहिं तोला पाँच भरि, जो गाँजा प्रतिवार।
कैसे स्वतन सभाँरिहैं, किमि करिहैं पर-कार।।77।।
आतप-तपन तपाय तन, उपजावत श्रम कार।
जात पजार्यो सो सुधन, पेरिस के बाजार।।78।।
भलो भोगिबो बरु मरे, रौरव-नरक निवास।
या तनु तें तजिबो न पै, पेरिस-पुण्य प्रवास।।79।।
नहि पाली काली प्रजा, भयो न पातक भूरि।
गोरे स्वानन सेइ कै, सुयश लह्यो भरपूरि।।80।।