दोहा / भाग 9 / रामेश्वर शुक्ल ‘करुण’
अनुदारहु देशी भले, परदेशी न उदार।
सबल सहारो पाय यह, कर बाँधहिं सरकार।।81।।
सुनहु स्वदेशी राज्यको, अनुपम न्याय उदार।
ठाकुर-घर जनमै सुता, प्रति पालहिं कृषिकार।।82।।
देखिय देशी राज्य सम, कहँ कौतिक-अगार।
क्रय-बिक्रय पशु भाँति जहँ होत सुने श्रम कार।।83।।
द्वे दिन बीते अन्न बिनु, तापै चढ्यो बुखार।
तऊ न मान्यो निर्दयी, लायो बाँधि बेगार।।84।।
कौन कहै कारे लहैं, जसुगोरे ते न्यून।
जहँ केवल महराज कौ, ‘हुकुम’ होत कानून।।85।।
अन्ध अशिक्षा तें रहे, तोरी रीढ़ लगान।
ब्योहर के ब्योहार तें, भिक्षुक भये किसान।।86।।
सत्रह लै सत्तर दिये, किये न ऋन से पार।
बरु सर्बस लै सेठ जी, अब कीजै उद्धार।।87।।
उत पूँजी पति निर्दयी, इत ब्योहर बदकार।
चूँसत हीन अधीन लखि, दीन कृषक श्रमकार।।88।।
चरि नित गोचर भूमि तें, भरि बहु सुपय पयोद।
पगुरातीं आतीं अहा, सुरभी मौन समोद।।89।।
वे सुरभी सुख दायिनी, कामधेनु धन-खान।
आह! घटे जिनके कटे, जन जीवन, तन प्रान।।90।।