दोहा / भाग 9 / हरिप्रसाद द्विवेदी
कवच कहा ए धारिहैं, तचीकीले मृदुगात।
सुमन हार के भार ते, तीन-तीन बल खात।।81।।
अब नख-शिख-सिंगार में, कवि-जन कछु रस नाहिं।
जूठन चाटत तुम तऊ, मिली कूकुर-कुल माहिं।।82।।
भली नाथ लीला रची, भलो अलाप्यो राग।
नर ओढ़ी सिर ओढ़नी, नारिन बाँधी पाग।।83।।
जाहिं देखि फहरत गगन, गये काँपि जग-राज।
सो भारत की जय-ध्वजा, परी धरातल आज।।84।।
जिनकी आँखन ते रहे, बरसत ओज-अँगार।
तिनके बंशज झैंप तें, दृग काँकत सुकुँवार।।85।।
उत हाकिम रैयत-रकत, करतपान उर चीर।
इत पीवत तैं मद भारे नृपति मनोज-अधीर।।86।।
तुम रजपूतनु तें कहा, रजपूती की आस।
प्रमदा मादिरा-माँस के, भये आजु तुम दास।।87।।
तो देखत तुव भगिनि के, खैंचत पामर केस।
सानि परत या बाहु, में, रह्यौन बल को लेस।।88।।
जित देखौ तित बढ़ि रहे, कुल कुठार भुवि-भार।
क्यों न होत पुनि आजु वह, परशुराम अवतार।।89।।
ह्वै हौ पुनि स्वाधीन तुम, सदा न रहि हौ दास।
या युग के बलिदान कौ, लिखियौ तब इतिहास।।90।।