दोहे-1 / राम नाथ बेख़बर
1
होरी देकर चल दिया, अंतिम यह फरमान।
धनिया जेवर बेचकर, मत करना गोदान॥
2
अंधा शासक है यहाँ, अंधा है कानून।
लोकतंत्र के घाव पर, मलते दोनों नून॥
3
किसको सन्यासी कहूँ, किसको बोलूँ सिद्ध।
नोंच रहे हैं आज भी, अबलाओं को गिद्ध॥
4
रिश्वत कभी न दे सका, बस इतनी की भूल।
अब तक फाइल चाटती, है दफ्तर की धूल॥
5
कटता तरुवर देखकर, झट से बोला गाँव।
मेरे सिर पर छोड़ दो, मेरे सिर की छाँव॥
6
दूर देश हम जा बसे, ज्यों ही निकले पाँख।
घर का रस्ता ढूँढती, घर की बूढ़ी आँख॥
7
पेड़, परिंदा, नद, नदी, पर्वत, झरना, झील।
एक नगर की भूख ने, लिया बहुत कुछ लील॥
8
बीच सड़क पर जब लड़े, आपस में दो मित्र।
मैंने बस देखा यही, घायल हुआ चरित्र॥
9
देख रहा हूँ आजकल, यत्र तत्र सर्वत्र।
बूढ़ा होते पेड़ से, अलग हुए सब पत्र॥
10
जीना है मुश्किल यहाँ, मरना है आसान।
क्यों ऐसा जग रच गये, ऐ मेरे भगवान॥
11
गेंदें सारी खो गयीं, गायब हुआ गुलेल।
बिट्टू मेरा खेलता, मोबाइल पर खेल॥
12
बिकता है कानून अब, बिकता है इंसाफ।
पैसे वालों के लिए, सात खून है माफ॥
13
घोड़े जब भूखों मरें, गदहे खायें घास।
फिर कैसे कोई करे, संसद पर विश्वास॥
14
छौक लगाकर काव्य में, चटा रहे हैं चाट।
अब मंचों पर गा रहे, कूद-कूद कर भाट॥
15
खत्म हो रहे गाँव के, टेढ़े मेढ़े मेड़।
अब खेतों में उग रहे, कंकरीट के पेड़॥
16
युग-युग से मजदूर बस, खोद रहे हैं खान।
राजमहल में क़ैद है, हीरों की मुस्कान॥
17
झूठ झूठ बस झूठ है, गद्दी पर आसीन।
सच्चाई को आज तक, मिला नहीं कालीन॥
18
शुरू हुआ है मुल्क में, मोबाइल का सत्र।
कौन लिखेगा अब यहाँ, इक दूजे को पत्र॥
19
बन बैठे हैं गाँव में, मुखिया जी सम्राट।
बिकने को तैयार है, गंगा जी का घाट॥
20
बैठ अकेले डाल पर, तितली गाती गीत।
मोबाइल पर व्यस्त हैं, मुनिया औ हरप्रीत॥
21
जंग लगी तलवार में, कुंद हुई है धार।
अब पूरे संसार में, लड़ने लगे विचार॥
22
अम्मा जेवर बेचकर, कर दी मेरा ब्याह।
आकर बहू दिखा रही, उन्हें सड़क की राह॥
23
बढ़ते-बढ़ते बढ़ गये, मज़हब के नाखून।
सड़कों पर बहने लगा, निर्दोषों का ख़ून॥
24
ताल तलैया वन नदी, पर्वत, झरने झील।
अब तो हर दिन हो रहे, मरघट में तब्दील॥
25
लालकिला ख़ामोश है, संसद है मजबूर।
भूख-प्यास के प्रश्न से, दिल्ली होती दूर॥