दोहे-2 / तारकेश्वरी तरु 'सुधि'
देती है मुस्कान भी, करती हमें उदास।
यह छोटी-सी ज़िन्दगी, अज़ब-गज़ब आभास॥
नारी-शिक्षा के लिए, यूँ तो सब मुस्तैद।
उनके घर की नार है, पर घूँघट में क़ैद॥
नारी की इन्द्रिय छठी, भगवन का वरदान।
नज़र-नज़र के फ़र्क़ का, उसको होता भान॥
पहचानूँ कैसे भला, अच्छा कौन खराब।
लोग यहाँ डाले हुए, मुख पर कई नक़ाब॥
पहले अपने को परख, फिर अपना बर्ताव।
तब औरों की दोस्ती, परख किसी का भाव॥
पानी है मंज़िल अगर, तो मत देखो शूल।
बिना शूल के फूल का, ख़्वाब देखना भूल॥
पेड़ भगाएँ आपदा, भूख, गरीबी, रोग।
देते हैं ताज़ी हवा, काया रखे निरोग॥
फिसल न जाना राह में, क़दम-क़दम पर गार।
है हँसने को आप पर, यह दुनिया तैयार॥
बने महल से खंडहर, खंडहरों से रेत।
महलों की जीवन कथा, करे गूढ संकेत॥
बदलेगा ये वक़्त भी, अभी मान मत हार।
ज्यों पतझड़ के बाद में, लौटी सदा बहार॥
बन्द न करना वार्ता, बेशक़ करना जंग।
सभी सुलह के रास्ते, वरना होंगे तंग॥
बाँटों उनके दर्द जो, रहते घर के पास।
होता पास-पड़ोस भी, आख़िर अपना ख़ास॥
बेपर उड़ने के लिए, रखिए यह भी ध्यान।
ईंधन लेकर ज्ञान का, ऊँची भरें उड़ान॥
बेशक़ थोड़ा ही पढ़ो, पढ़ो मगर तुम नित्य।
भरता मन में स्वच्छता, बस अच्छा साहित्य॥
मतलब की बैसाखियाँ, उन पर चलते जो लोग।
अपने जैसों से सदा, होता उनका योग॥
मिले अगर आरम्भ से, विद्या का आधार।
जीवन, मन होता सुख़द, उन्नत सोच, विचार॥
मिलता मोती ज्ञान का, करो अगर संकल्प।
लेकिन मेहनत का नहीं, कोई और विकल्प॥
रंक बने राजा कभी, राजा रंक हुजूर।
देने वाला वह ख़ुदा, तुम नाहक़ मग़रूर॥
रहता है संकल्प का, एक क्षणिक आवेश।
मिले शिथिलता राह में, धर कर नाना वेश॥
राह किधर, मंज़िल कहाँ, नहीं किसी को होश।
लक्ष्यहीन बन दौड़ते, व्यर्थ पालकर जोश॥
रोता है दिल बारहा, देख झूठ के पाँव।
सच तो बैठा धूप में, मिले कहाँ पर छाँव॥
वक़्त गुज़रने पर करें, सुधि सब पश्चाताप।
था जीवन सुलझा हुआ, बस उलझे हम-आप॥
वक़्त कहाँ है पास जो, करें स्वयं से बात।
भौतिकता ही घेरकर, बैठी है दिन-रात॥
विरहानल का ताप हो, या गर्मी की मार।
जठरानल के सामने, सब बातें बेक़ार॥
सुधि कुछ ऐसे लोग हैं, ख़ुद को मानें भूप।
जग को चाहें ढालना, अपने ही अनुरूप॥
सुख़-दुख़ है अनुभूतियाँ, सबको सुख की प्यास।
लेकिन दुख़ के बाद ही, लगता है सुख ख़ास॥
शातिर फ़ितरत के जिन्हें, मक्कारी का रोग।
गली-गली में आजकल, मिलते ऐसे लोग॥
शाँत और गंभीर है, अपनी प्रकृति विशाल।
विवश अगर मानव करें, धरे रूप विकराल॥
शुद्ध हृदय, पुरुषार्थी, दोस्त मृदुल हो, शिष्ट।
रहना दूर कुसंग तो, करता सदा अनिष्ट॥
है मंदिर के शंख-सी, बेटी की आवाज़।
लगे भौंर की आरती, जैसे बजता साज़॥
होती विपदा में सदा, 'सुधि' सच्ची पहचान।
ला देती है दोस्ती, दुख में भी मुस्कान॥