दोहे-3 / दरवेश भारती
ज्यों नभ-तल पर छा रहा,  तारों में राकेश।
विश्व-धरातल पर रहे, त्यों यह भारत देश।।
अन्तर्मन  से था  किया, जिसपर  दृढ़  विश्वास।
खण्ड-खण्ड वह कर गया, जीवन की हर आस।।
पाकर दुख को जड़ मनुज, क्रन्दन करे हज़ार।
क्रन्दन में यह सुधि गयी,  क्रन्दन करे न पार।।
प्रान्त-प्रान्त में देश के, फैल रहा भय, त्रास।
जनता  का  कैसे  रहे,  सत्ता  पर  विश्वास।।
जोड़-जोड़कर   सम्पदा,  ख़ूब   हुआ   धनवान।
परहित में कितना किया, कर इसका अनुमान।।
आकर्षक, हँसमुख लगा,  हर चेहरा ऐ यार।
किन्तु हृदय में था लिये, दुःखों का अम्बार।।
काम करे जो  वक़्त पर,  वक़्त उसे  दे तार।
इससे ग़ाफ़िल जीव पर, पड़े वक़्त की मार।।
ज़रा-ज़रा-सी बात पर, उपजे मन में क्लेश।
यों  जीने  से  श्रेष्ठ  है,  मरना   ही  'दरवेश'।।
घृणा  पनपती है  सदा,  राजनीति  में मीत।
उखड़े-उखड़े स्वर यहाँ, लगें सरस संगीत।।
क्रूर, कुटिल, कटु, वक्र हैं, राजनीति के काम।
घर, परिवार, समाज का, करते काम तमाम।।
 
	
	

