दोहे-4 / दरवेश भारती
मिलने पर उनके दिखे, कुछ ऐसे अन्दाज़।
बाहर से तोता लगे, अन्दर से वह बाज़।।
तथाकथित गुणवन्त की, देखी अद्भुत चाल।
सरलहृदय दिखता मगर,बुनता है भ्रमजाल।।
कई मुखौटे हैं यहाँ, ऊपर से अति नम्र।
अन्तस्तल से हैं वही,अत्याकुल,अति व्यग्र।।
शीतल छाया है मरण, जीवन है अंगार।
सुखी वही हैं जो करें, इस सच को स्वीकार।।
श्रम से नाता तोड़कर, मत कर यों विश्राम।
वरना आपत्काल में, भुगतेगा परिणाम।।
किसी देश के आमजन, जब हों हम-आवाज़।
मधुर स्वरों में बज उठें, क़िस्म-क़िस्म के साज़।।
जब भी इक सुविचार ने, लिया ठोस आकार।
जन-जन का तब हो उठा, हर सपना साकार।।
आँगन-आँगन खेलता, जिसका रूप अनूप।
काश ! दिखाये वह कभी, अपना रूप सुरूप।।
आ जायें व्यवहार में, इनपर दो कुछ ध्यान।
हर फ़ाइल के गर्भ में, भरे पड़े हैं प्लान।।
'पानी-पानी' चीख़ती, धरती सूखाग्रस्त।
नेता, उपनेता सभी, खान-पान में मस्त।।