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दोहे-4 / राम नाथ बेख़बर

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76
चाहे पूजा मत करो,पर करना सम्मान।
नारी ही करती सदा,मानव का उत्थान।।

77
सब कुछ जग में छोड़कर,बैठा तेरे पास।
बंजर मन में उग गयी,नर्म रेशमी घास।।

78
माँ पत्नी बेटी बहू,नारी के सौ रूप।
घर को छाया दे रही,सहकर तीखी धूप।।

79
खेल रहे हैं खून से,रोज़ यहाँ बदमाश।
पड़ी हुई है राह में,नैतिकता की लाश।।

80
हर युग में हर मोड़ पर,खड़ा मिला लंकेश।
कहाँ सुरक्षित हो सका,अब तक भारत देश।

81
जिस घर में बेटी,बहन,माता हो ख़ुशहाल।
उस घर में पड़ते नहीं,दुख के मक्कड़ जाल।।

82
चाँद-सितारे कर रहे,इक दूजे से बात।
किसके दुख का रूप है,इतनी काली रात।।

83
कड़े धूप के दिन गए,अब है शीतल छाँव।
रस्ता पाकर गाँव का,ख़ुश हैं मेरे पाँव।।

84
दुख के पर्वत देखकर,होते नहीं अधीर।
दुनिया के हर जंग में,विजयी होते वीर।।

85
सुनकर तुलसी कर गए,भव सागर को पार।
बड़े काम की चीज है,नारी की दुत्कार।।

86
विपदा भी होती भली,करती है उपकार।
देकर जाती है हमें,अनुभव का संसार।।

87
बस मेरी विनती यही,तुमसे है भगवान।
खड़ी फ़सल को देखकर,हँसता मिले किसान।।

88
तन पर अत्याचार कर,बढ़ा रहे हैं रोग।
पहुँच चुके हैं क़ब्र तक,दवा ढूँढ़ते लोग।।

89
जो कौड़ी के दाम पर,बेच रहे ईमान।
लोग वही अब हो रहे,दुनिया में धनवान।।

90
खेतों में सूखा पड़ा,खाली है खलिहान।
गाँव-गाँव में सो रहे,भूखे पेट किसान।।

91
मुफ़्त कृषक को दीजिए,बिजली,पानी बीज।
चमकेगी तब गाँव की,फीकी हर दहलीज।।

92
होरी भूखा मर गया , मुनिया बेचे लाज।
संसद में ही आज तक,अटका रहा सुराज।।

93
नून तेल लकड़ी नही और न चावल-दाल।
कहाँ गरीबी पूछती,उनसे कभी सवाल।।

94
जहाँ नहीं हैं गूँजती,जनता की आवाज़।
कैसे कह दूँ है वहाँ,दुनिया में गणराज।।

95
आँख निगोड़ी थक गई,दुख के बादल देख।
सारा जीवन मैं लिखा,दुख पर ही आलेख।।

96
आसमान में है बसा,एक अजूबा गाँव।
जहाँ दबाती चाँदनी,सूर्य देव के पाँव।।

97
जनता से मतलब नहीं,जिसका भी हो राज।
राजा को बस चाहिए,अपने सिर पर ताज।।

98
धरती धू-धू जल रही,सूख रही है झील।
गौरैया की मौत पर,ख़ुशी मनाती चील।।

99
दुनिया दुख का नाम है,दुनिया दुख की खोज।
किसके मन के द्वार पर,ख़ुशी थिरकती रोज।।