दोहे-5 / दरवेश भारती
जब-जब दुख की धूप से, लगे दहकने अंग।
उसके साये का मिला, तब चन्दनमय संग।।
सोच-समझकर साधिए, मेल-मिलाप-मृदंग।
कहीं न पड़ जाये कभी, समरसता में भंग।।
हरगिज़ प्रीति न कीजिए, नश्वर तन के संग।
रँग जायेगा एक दिन, यह माटी के रंग।।
सविनय वह इतने दिखे, देख हुए सब दंग।
देखा-परखा जब उन्हें, निकले विषम भुजंग।।
सखे,सत्य ही बोलना,किसका किया कुसंग।
उसे सुधी हो कह रहे, जिसकी बुद्धि अपंग।।
राजनीति में घुस रहे, नेता आज दबंग।
दूर रखें जो अम्न को, चाहें हर पल जंग।।
जग में जिस इन्सान ने, त्याग दिया सत्संग।
जीवन जीने की कहाँ, उसमें रही उमंग।।
राजनीति का पथ सखे, जितना है विस्तीर्ण।
उतना है आपद-भरा, कांटों से आकीर्ण।।
बाहर से तो लग रहे, उन्नति और विकास।
अन्दर ही अन्दर मगर, पसर रहा है ह्रास।।