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दोहे-6 / अमन चाँदपुरी

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प्रेम किया तो फिर सखे! पूजा-पाठ फ़ुज़ूल।
ढाई आखर में निहित, सकल सृष्टि का मूल।।

किसकी मैं पूजा करूँ, किसको करूँ प्रणाम।
इक तुलसी के राम हैं, इक कबीर के राम।।

अंगारों पर पाँव हैं, आँखों में तेज़ाब।
मुझे दिखाए जा रहे, रंगमहल के ख़्वाब।।

मानवता के मर्म का, जब समझा भावार्थ।
मधुसूदन से भी बड़े, मुझे दिखे तब पार्थ।।

सृष्टि समूची चीख़ती, धरा बनी रणक्षेत्र।
नीलकंठ अब खोलिए, पुन: तीसरा नेत्र।।

मिट्टी को सोना करें, नव्य सृजन में दक्ष।
कुम्भकार के हाथ हैं, ईश्वर के समकक्ष ।।

लगा सोचने जिस घड़ी, दूर बहुत है अर्श।
गुम्बद के साहस ढहे, हँसी उड़ाये फर्श।।

उनकी फ़ितरत सूर्य-सी, चमक रहे हैं नित्य।
मेरी फ़ितरत चाँद-सी, ढूँढ़ रहे आदित्य।।

कुंठित सोच-विचार जब, हुआ काव्य में लिप्त।
शब्द अपाहिज हो गए, अर्थ हुए संक्षिप्त।।

दूषित था, किसने सुनी, उसके मन की पीर।
प्यास-प्यास रटते हुए, मरा कुएँ का नीर।।

भोर हुई तो चाँद ने, पकड़ी अपनी बाट।
पूर्व दिशा के तख़्त पर, बैठे रवि-सम्राट।।

शहर गए बच्चे सभी, सूनी है चौपाल।
दादा-दादी मौन हैं, कौन पूछता हाल?

नृत्य कर रही चाक पर, मन में लिए उमंग।
है कुम्हार घर आज फिर, मिट्टी का सत्संग।।

अलग-अलग हैं रास्ते, अलग-अलग गन्तव्य।
उनका कुछ मंतव्य है, मेरा कुछ मंतव्य।।

राम तुम्हें तो मिल गये, गद्दी, सेवक, दास।
पर सीता ने उम्र भर, झेला है वनवास।।

पलकें ढोतीं कब तलक, भला नींद का भार।
आँखों ने थक हारकर, डाल दिये हथियार।।

अधरों पर ताले पडे़, प्रतिबंधित संवाद।
हमने हर दुख का किया, कविता में अनुवाद।।

जर्जर है फिर भी खड़ी, माटी की दीवार।
कब तक देगी आसरा, कुछ तो सोच-विचार।।

पायल छम-छम बज रही, थिरक रहे हैं पाँव।
कहती मुझको ब्याह कर, ले चल प्रियतम गाँव।।

पोखर, जामुन, रास्ता, आम-नीम की छाँव।
अक्सर मुझसे पूछते, छोड़ दिया क्यों गाँव।।