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दोहे-9 / मनोज भावुक

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 'भावुक' दोहा बन करs, बहुते बीतल रात।
जइबs ना आफिस अगर, खइबs कइसे भात॥54॥

लम्बा दूरी तय करे 'भावुक' पातर धार।
फइलत-पसरत जे चले, से कब पहुँचे पार॥55॥

धुआँ उठे आकाश में खुद जरला के बाद।
 'भावुक' तुहूँ जार दs, मन के सब अवसाद॥56॥

जिनिगी के हालात के, इहो एगो रूप।
अँगना में सावन मगर दुअरा बरिसे धूप॥57॥

अँगना गायब हो गइळ, बुढ़िया खोजे घाम।
अपना-अपना रूम में सभका बाटे काम॥58॥

दिन बीतल जे घाम में ओकर फिक्र फिजूल।
खाली छाया में खिले कहवाँ कवनो फूल॥59॥

दुनिया से जब-जब मिलल, ठोकर आ दुत्कार।
तब-तब बहुते मन परल, माई तोर दुलार॥60॥

भागत गाछ-बिरीछ बा, अउर खड़ा बा रेल।
 'भावुक' अक्सर आँख से, ईहे लउके खेल॥61॥

 'भावुक' तोहरा साथ में, केतना भइल अनेत।
चिरूआ भर पानी मिलल, ओहू में बा रेत॥62॥

मन के भीतर चाह के, धधकत बाटे धाह।
मंजिल लउकत बा, मगर नइखे लउकत राह॥63॥

भीतर-भीतर खोखला, बाहर से आबाद।
 'भावुक' चक्कर नाम के, कर देला बरबाद॥64॥

जवना गाछी पर फरे, 'भावुक' मिठका आम।
तवने पर ढेला चले, दुपहर, सुबहो शाम॥65॥

जाने कइसन आज ई, फइलल जाता रोग।
अनके सुख से बा दुखी, 'भावुक' सगरी लोग॥66॥