दोहे का दहला / विद्याभूषण
करे ठिठोली समय भी, गर्दिश का है फेर,
यश-वर्षा की कामना, सूखे का है दौर ।
महँगाई का जोर है, किल्लत की है मार,
तिस पर घी भी ना मिले, कर्ज़ हुआ दुश्वार ।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम,
संत निठल्ले हो रहे, उन्हें न कोई काम ।
नाम-दाम सब कुछ मिले जिनके नाथ महंत,
कर्म करो, फल ना चखो, कहें महागुरू संत ।
हरदम चलती मसखरी, ऐसी हो दूकान,
मौन ठहाके से डरे, सदगुण से इनसान ।
दस द्वारे का पींजरा, सौ द्वारे के कान,
सबसे परनिंदा भली, चापलूस मेहमान ।
ऐसी बानी बोलिए जिसमें लाभ अनेक,
सच का बेड़ा ग़र्क हो, मस्ती में हो शोक ।
आडम्बर का दौर है, सच को मिले न ठौर,
राजनीति के दाँव में पाखंडी सिरमौर ।
अपना हो तो सब भला, दूजे की क्या बात !
जगत रीति यह है भली, दिन हो चाहे रात ।
राज रोग का कहर है, आसन सुधा समान,
जिसको कोई ना तजे, उसे परम-पद जान ।