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दोहे - 2 / ऋता शेखर 'मधु'

तन पर दो ही हैं नयन, मन में कई हजार।
दिखे नहीं जो सामने, वहाँ घटित सौ बार॥ 1

घन सघन घनघोर घटा, घन सम लायो पीर।
घन कुंतल लहरा गए, छुपा नयन-घट नीर॥2

दो पहलू हर बात के, सहमति और विरोध।
प्रकट करो हर भाव को, मन में करके शोध॥3

आनत लतिका-गुच्छ से, छनकर आती घूप।
ज्यों पातें हैं डोलतीं, छाँह बदलती रूप॥4

सूर्य कभी न चाँद बना, चाँद न बनता सूर्य।
सब हैं निज गुण के धनी, बंसी हो या तूर्य॥5

सुबह धूप सहला गई, चुप से मेरे बाल।
जाने क्यों ऐसा लगा, माँ ने पूछा हाल॥6
नव प्रभात की नव किरण, करे अँधेरा दूर।
गहरी काली रात का, दर्प हुआ है चूर1. 7

दुग्ध दन्त की ओट से, आई है मुस्कान
प्राची ने झट रच दिया, लाली भरा विहान॥8

तीखी तीखी धूप जब, पहुँचाए आघात।
दूर गगन में सज रही, मेघों की बारात॥9

आँखों में आँसू भरे, लिख देते जो हास।
जग में वे किरदार ही, बन जाते हैं खास॥10