दोहे / पृष्ठ ४ / कमलेश द्विवेदी
31.
दिखे समस्या हर तरफ कहीं न दिखता अंत.
गण बेचारा सोचा-यह कैसा गणतंत्र.
32.जितनी उसमें खूबियाँ उतने मुझमें दोष.
पर न दिखाता वो कभी मुझ पर अपना रोष.
33.तुझसे मिलने की मचे तन-मन में जब होड़.
मन पहले जाये पहुँच तन को पीछे छोड़.
34.कब तक हो सकता भला रिश्तों का निर्वाह.
हम करते हैं आह तो वे करते हैं वाह.
35.अब न रहीं वे चिट्ठियाँ अब न रहे वे तार.
जिनको पाने दौड़ता था सारा परिवातकर.
36.पूजा और अजान तुम गीता और कुरान.
मैं उसको खोजूँ कहाँ तुम्हीं राम-रहमान.
37.बौर आम पर आ गये कलियाँ खिलीं अनन्त.
फूली सरसों कह रही-लो आ गया बसन्त.
38.देख रहा था ख्वाब में वो नभ का आनन्द.
तभी किसी ने कर दिया आकर पिंजरा बन्द.
39.बार-बार नभ देखकर अब वो करे विचार-
खुला मिलेगा क्या कभी फिर पिंजरे का द्वार.
40.उनसे दो बातें हुईं बदल गये अहसास.
कानों में मिसरी घुली मन में घुली मिठास.