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दो अर्थ का भय / गिरिराज किराडू

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अपमान बेहद था होने का रक्त के दरिया में दौड़ते घुड़सवार थे किसी और से नहीं
अपने आप से थी शर्मिंदगी हर साँस में हर शब्द का एक अर्थ दुख दूसरा मज़ाक था – जीवन में
कल्पना में पर नहीं था इनमें से कुछ भी
यही मेरा गुनाह कल्पना में सुखी था मैं