भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दो आलम के आफ़ात से दूर कर दे / 'सुहा' मुजद्ददी
Kavita Kosh से
दो आलम के आफ़ात से दूर कर दे
इक ऐसी नज़र चश्म-ए-मख़मूर कर दे
नसीब-ए-मोहब्बत है अब वो तमन्ना
उन्हें जो तग़ाफुल से माज़ूर कर दे
तिरे कुर्ब की हाए ये शान क्या है
जो इदराक-ए-हस्ती से भी दूर कर दे
कोई किस तरह पाए उस हम-नशीं को
जिसे जुस्तुजू मंज़िलों दूर कर दे
जमाल उस को कहिए कि परतव ही जिस का
हिजाबों को नूरून-अला-नूर कर दे
न अब होश का बस न ताक़त जुनूँ में
कि हाल-ए-तबीअत ब-दस्तूर कर दे
‘सुहा’ जलवा-ए-शोख़ शादाब उन का
शबाब-ए-गुलिस्ताँ को बे-नूर कर दे