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दो आलम के आफ़ात से दूर कर दे / 'सुहा' मुजद्ददी

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दो आलम के आफ़ात से दूर कर दे
इक ऐसी नज़र चश्‍म-ए-मख़मूर कर दे

नसीब-ए-मोहब्बत है अब वो तमन्ना
उन्हें जो तग़ाफुल से माज़ूर कर दे

तिरे कुर्ब की हाए ये शान क्या है
जो इदराक-ए-हस्ती से भी दूर कर दे

कोई किस तरह पाए उस हम-नशीं को
जिसे जुस्तुजू मंज़िलों दूर कर दे

जमाल उस को कहिए कि परतव ही जिस का
हिजाबों को नूरून-अला-नूर कर दे

न अब होश का बस न ताक़त जुनूँ में
कि हाल-ए-तबीअत ब-दस्तूर कर दे

‘सुहा’ जलवा-ए-शोख़ शादाब उन का
शबाब-ए-गुलिस्ताँ को बे-नूर कर दे