दो ऐसे पल हों जीवन के / सुमित्रा कुमारी सिन्हा
दो ऐसे पल हों जीवन के !
जिनमें भुला सकें हम जग के संघर्षों का कटु आवाहन,
जिनमें सुला सकें बाहर के कोलाहल का थका हुआ मन,
जिनमें हम सुन सकें मधुर स्वर भीतर के उठते स्पन्दन के ।
दो ऐसे पल हों जीवन के !
देख सकें पल भर को ही हम वहाँ धरा की मौन गहनता,
देख सकें हम पल भर को ही वहाँ गगन की परिधिहीनता,
फूल बनें, उस पल भर में ही प्रस्तर-खण्ड देह के, मन के ।
दो पल ऐसे हों जीवन के !
जहाँ पराजय को दुलरावें, विजय-कामना के स्वर मचलें,
पल भर को सपनों के जग में पथ, दिशि, मान-दण्ड सब बदलें,
ले आदान-प्रदान युगों के झाँकें रसमय लोचन मन के ।
दो पल ऐसे हों जीवन के !
प्रकृति मुग्ध हो नव छवि निरखे, पल में बंधा रहे मन्वन्तर,
अमर अवधि को बड़ी साध से, करे क्षितिज भी बन्दन रुककर,
बंध जहाँ हँस खेलें खुलकर, मुक्ति पड़े पग में बन्धन के ।
दो पल ऐसे हों जीवन के !