भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दो कविताएँ / शलभ श्रीराम सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खिड़कियाँ जो खुली हैं इस वक्त
इनमें --कहीं कोई एक चेहरा है तुम्हारा !
और नीचे सड़क पर चलती हुई इस भीड़ में
अब भी कहीं हूँ मैं !
और अगले मोड़ से शायद शुरु होगी
यह अँधेरी गली
रोशनी में नहाकर जो
सूखने के लिए गीली हवा को आकाश में लटका,
झुकाए आँख अपनी छातियों को देखती थी
और लेकर आड़ अपने खुले बालों की
रगड़ती थी उन्हें घुटनों से !
उस समय भी कहीं पर तुम थीं
और मैं भी ....!
(1963)