भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दो घड़ी को दे दे कोई अपनी आँखों की जो नींद / आरज़ू लखनवी
Kavita Kosh से
दो घडी़ को दे-दे कोई अपनी आँखों की जो नींद।
पाँव फैला दूँ गली में तेरी सोने के लिए॥
मिट भी सकती थी कहीं, बेरोये छाती की जलन।
आग को पिघला लिया फाहा भिगोने के लिए॥