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दो जून की रोटी / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

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सुबह उठते
निकल पड़ते हैं रोज
झउवा, पलरी और खुरपी लेकर
मेड-डाड़ी से होते हुए खेत के मैदान में
घर के पास
घर से बहुत दूर कभी
बच्चों को छोड़ कर बिस्तर पर
खूंटे पर बंधे जानवरों के भूख की फ़िक्र में

धूप के तेज
जेठ की दुपहरी को सहते
सूखे गले और रुंधे मौसम की खरास
मिटाते, रोटी की आश छोड़ रोटी को तलाशते

अपना कम
बच्चों की अधिक चिंता लिए
जानवरों के लिए व्याकुल होकर ह्रदय से
 सुबह को दोपहर दोपहर को शाम में ढालते

मुश्किल से ही
होती है नशीब यहाँ अब
बिस्तर पड़े सोते-रोते बच्चों के लिए
खूंटे पर बंधे पराधीन जानवरों के लिए
खेत के मैदानों में डटे इन सबके लिए चिंतित
लोगों के लिए, दो जून की रोटी ॥