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दो तन हों, मन हों / बलबीर सिंह 'रंग'
Kavita Kosh से
दो तन हों, मन हों, किन्तु एक प्राणों से प्राण नहीं मिलते।
सुधियों के झुरमुट में मेरे खोये अरमान नहीं मिलते।
कल-कल, छल-छल की हलचल से
मुखरित करती भू का आंगन,
मट-मैले मूक कगारों की
जड़ता में भरती पागलपन,
बहतीसरिता अविरल गति से
युग-युग की रुकी रवानी ले,
निर्मम तट के सम्मोहन को
लहरों में झुकी जवानी ले,
पर उसकी चंचल लहरों को, कोमल पाषाण नहीं मिलते।
मैंने भी बहना माँगा था
क्या जीवन सरि की धारा में?
मैंने भी रहना मांगा था
क्या क्रूर क्लेश की कारा में?
मेरा याचित स्वर सुनकर भी
दानी मन का यश हिल न सका,
बिन माँगे भीख मिली मुझ को
माँगे से मोती मिल न सका,
सुख क्षणिक मिला पर सब दिन को सुख के सामान नहीं मिलते।
मानव को अपने जीवन में मन के मेहमान नहीं मिलते॥