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दो दिन का मेला / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

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अभी डाल में फूल खिला है,
इतराता है फूला-फूला।
उसे पता है कुछ घंटों में,
बिखर जाएगा यह घरघूला।

पल दो पल के इस जीवन में,
फिर क्यों जिएँ उदासी ओढ़े।
क्यों न फर्राकर दौड़ाएँ,
मस्ती के, खुशियों के घोड़े।
कलियों पत्तों और हवा के,
अभी सामने तथ्य कबूला।

झूम-झूम कर लगा झूलने,
फिर-फिर वह हँस-हँस कर झूला।
छोड़ी दुनियाँ की चिंताएँ,
भूत भविष्य सभी कुछ भूला।
झूले पर ही लगा नाचने,
मटका-मटका कर वह कूल्हा।

उसकी मस्ती देख पत्तियों,
डालों ने भी होश गवांए।
ऊपर नीचे आगे पीछे,
अगल-बगल में मुंह मटकाए।
छोड़ झमेले नाचो गाओ,
दुनियाँ तो दो दिन का मेला।