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दो दिन का यह मेला है / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
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दो दिन का यह मेला है
हर इन्सान अकेला है
अच्छा कोई काम करो
पुण्य कर्म की बेला है
बात कुबेरों की करते
पास न एक अधेला है
गुरू बनकर ही सब मिलते
मिला न कोई चेला है
जीवन क्या है मानव का
विपदाओं का रेला है
सबका अपना अलग-अलग
झंझट और झमेला है
बसा हुआ हर वाणी में
अब तो नीम-करेला है
जीता है मन को जिसने
वीर वही अलबेला है
पतित हुआ कर्तव्यों की
की जिसने अवहेला है
‘मधुप’ नहीं साहस जिसमें
वह मिट्टी का ढेला है