दो दिल दूर चले; कदमों की,
मैं केवल आहट सुन पाऊँ।
बोलो! तुमको क्या बतलाऊँ।
शायद ऊँचे भवन प्रतिष्ठित,
मुझको करना नहीं आ सका।
शायद उसका हाथ पकड़कर,
मंज़िल तक मैं नहीं जा सका।
मेरी ही ग़लती है पर मैं,
कब तक रो-रोकर मर जाऊँ।
साथ सुमन का इक कंटक को,
क्या उपवन को ठीक लगेगा?
उसके दर पर मेरा आना,
क्या उस मन को ठीक लगेगा?
बिन उसके मन उपवन सूना,
कैसे उसको यह समझाऊँ?
क्षणभंगुर-सी पीर हमारी,
इसी प्रश्न से रोज़ लड़ेगी।
अगर कुरेदोगे तुम इसको,
बातों में ही फूट पड़ेगी।
पीड़ा का सागर लेकर मैं,
कब तक झूठों-सा मुस्काऊँ।