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दो बातें और एक तर्क / अजित कुमार

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मानता हूँ:
हर नया गाना सदा सस्वर नहीं होता ,
अनश्वर भी नहीं होता-
अभी उमड़ा, घिरा, गूँजा, मिटा तत्काल,
जैसे बुलबुले... सपने... घिरौंदे... इन्द्रजा ...ल।

इस तरह के गीत अपनाना,
सुनाना दूसरों को और ख़ुद गाना –
तुम्हें अच्छा नहीं मालूम होता, किन्तु
यह सोचो कि जो तुमने सुने थे गीत ,
जिनके रचे जाने, गुनगुनाने की क्रिया में
गए कितने कल्प,युग,पल बीत :
वे भी तो नए थे एक दिन
ताज़े, कुँवारे फूल की ही भाँति।
तुमने था गले उनको लगाया, और
दुलराया,सजाया, हार प्राणों का बनाया,
नहीं ठुकराया, हुए यद्यपि मलिन वे गीत ।

और फिर यह आज का गाना कि
महफ़िल भी जमी है,
ताल, सुर, लय है, हर इक शै है,
नहीं कोई कमी है।
सिर्फ़ इतना है कि तुम भी बीच में टूटी हुई झंकार को जोड़ो,
अधूरा राग मत छोड़ो,
कि तुम भी गुनगुनाओ,
बीच में आवाज़ यदि डूबे, उसे ऊपर उठाओ :
राग जाएँ दिशाओं में बिखर,
पथ हो जाय उज्ज्वल,
और उस पल
इस धरा पर स्वर्ग का गन्धर्व आए उतर:
बस इतनी प्रतीक्षा मुझे भी है, तुम्हें भी है।

और फिर यह बात भी सच है कि
ईश्वर का ठिकाना कुछ नहीं:
कब, किस दुखी अन्धे भिखारी, या पुजारी, या
बिचारी दीन बुढिया का रचाये वेश ।
उस बहुरूपिए भगवान के अस्तित्व से अनभिज्ञ रहकर
हम न जाने किस समय, किस तरह आएँ पेश :
यह भय है।

इसी से तो मुझे यह याद आता है कि
जब भी, जहाँ भी कोई नया स्वर गुनगुनाता है,
पुराना कंठ, पहले का सुना संगीत,
बीता राग, लय विपरीत,
सबका-सब अचानक भूल जाता है ।
नये स्वर से लगा लूँ नेह ,
बिसरा कर सकल सन्देह :
ऐसा भाव मन में आ समाता है:

कि शायद ‘यही’ नवयुग का मसीहा हो।