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दो बीघा खेत / निरंजन श्रोत्रिय
Kavita Kosh से
पूरी दुनिया से अलग होती
दो बीघा खेत की दुनिया
दो बीघा खेत का
सूरज अलग
हवा अलग
बादल अलग
दो बीघा खेत पर हल जोतता आदमी
दुनिया की भीड़ से अलग होता
एक जोड़ी बैल, हल और
दो बीघा खेत की दुनियादारी में फंसा वह
बेखबर है संसार में जमा हो रहे हथियारों से
अपना वोट पेटी में खोंस
घिर आये बादलों को तकता
दो बीघा खेत की सल्तनत का बादशाह
मानता है इस भूखंड को
दुनिया की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई
ममत्व से सहलाता
दो बीघा खेत में उग आये
बच्चों के गाल, पीठ और अंगुलियाँ
चूमता उनके जवान होते सुनहले माथे को
फिर अचानक एक दिन
दो बीघा खेत का मालिक
भींचकर अपना अंगूठा मुट्ठी में
कभी रोने तो कभी गरजने लगता है.