भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दो मुझे / मोहन कुमार डहेरिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दो मुझे

दो मुझे
संत्रासों से बुना गया एक लिबास दो
गोबर से बीने गए दानों की रोटियाँ दो
दो पीने के लिए
समय की मोरी में बहता
पृथ्वी का सबसे गंदा जल दो
दो फिर
अपने बाग का कोई सड़ा हुआ फल
खाते ही जिसे,
फोड़े फुंसियों तथा चकत्तों से भर जाए देह
और व्याप्त हो जाए
फेफड़ों में ऐसी गंध,
कि भनभनाती रहे वर्षों तक आत्मा

ऐसे तो
चलता ही रहेगा यह सिलसिला
यूँ तो
लिए न जा सकेंगे फैसले
शायद ही तब्दील कर पाए
पीठ के कायर मांस को
लोहे की चादर में
दिन-रात की ठुकठुक

दो मुझे
हम्मालों सा हाँफता सूर्योदय दो
हाहाकारों से घिरे उत्सव दो
मरे हुए ढोर सा गंधाता वसंत दो
पिचके हुए लोटे सा क्रोध दो
नहीं चाहता अपनी यात्राओं के लिए
ब्रह्मवेला का सबसे शुभ मुहूर्त
सीधे-सरल निष्कंटक रास्ते

दो मुझे,
अमावस्या की सबसे काली रात
सड़ी हुई लकड़ीवाली पतवार
आशंकाओं से भरा लक्ष्य
तथा
काई, फिसलनवाले एकदम सीधे खड़े पहाड़
जान सकूँ जिन पर चढ़ते हुए
लदा हो जब पीठ पर सबसे ज्यादा बोझ
चटक रही हों थकान से पिंडलियों की नसें
तो कैसे सँभाले जाते हैं लड़खड़ाते हुए कदम
कैसे साधा जाता है दुख

कुछ न कर सकेंगी
ये रोज-रोज की उत्तेजनाएँ
वक्त-बेवक्त की बौखलाहट
कुतरते रहेंगे कब तक चूहे की तरह
आखिर शब्द भी

दो मुझे
गहरे अंतर्द्वन्द्वों वाला मोक्ष दो
चटक रंगोंवाली व्याधियाँ दो
धिक्कारों से भरा हुआ न्याय दो
दो फिर,
खूब घुने हुए बीज सा बचपन
रोप सकूँ जिसे समय की कोख में
तैयार हो सके जिससे,
अगली शताब्दी की सबसे सशक्त नस्ल

वर्षों से निकल रही हैं मेरे धैर्य से चिंगारियाँ
सीलन और फफूँद से भर गए राग
देखी नहीं है न जाने कब से स्मृतियों ने धूप
आजादी का मतलब मेरे लिए
मात्र मेंढकों जितनी उछाल

नहीं चाहिए
छप्पन पकवानों से भरे हुए थाल
नहीं चाहता मैं
कानों में मिश्री से घोलनेवाले वचन
न ही जानने की इच्छा है
सौ साल जीने का हुनर

दो मुझे,
मार्मिक बिछोह दो
या ऐसा पारदर्शी शोध
रेशा-रेशा हो जाए मेरा वजूद ताकि पहचान सकूँ
कौन सा है बादलों के पीछे का वह लोक
जकड़ जाती हैं जहाँ पहुँचकर उड़ानें
फैली है धरती के किस पाताल में
आखिर मेरी कुँठाओं की जड़ें

बहुत चुप रहा मैं
बँधा रहा वर्षों लाल फीतेवाली फाइल में
चिड़ियाएँ बनाती रहीं मेरे सीने में घोंसले
चाट गया आँखों की रोशनी संविधान सम्मत अँधेरा
रही बात भाषा की तो,
निकलती रही उससे किरणें ऐसी प्रखर
कि मिला ही न सका कभी नजरें
यद्यपि मुझमें ही थे
मीठे पानी के झरने, रत्न बेमिशाल
खोद-खोदकर मेरे अंदर के खनिज
हो गए कुबेर स्वदेशी फिरंगी
बुझाते रहा,
तप्त चटकती रेत को निचोड़कर
पर अपनी प्यास
रिसते रहा पीढ़ी-दर-पीढ़ी कंधों से लहू
गाँठते रहे सवारी, रोब फटकारते
मिथक महान
झोंका विश्व की हर उन्नत प्रौद्योगिकी ने
मेरी ही साँसों में जहरीला कचरा
यहाँ तक कि,
बुनी जाने लगी जब कपड़ों के थानों में
धागे नहीं वरन मेरी अँगुलियाँ
खामोश था तब भी

चूँकि बचे थे मेरे ही अंदर
जीवन के सबसे अधिक लक्षण
इसलिए पकड़ा गया बंदरों की तरह बार-बार
कभी चाक किया गया पेट
डाला गया कभी खौलते हुए रसायन में
मेरा हृदय
हर बार चकित करते रहा
लेकिन मेरे सब्र का ग्राफ

खूब किया मैंने इंतजार
पड़ा रहा सदियों झिलमिलाती रोशनियों के पिछवाड़े
छिलके गिराती रहीं मुझ पर तारीखें
हादसों सा गुजरा मेरे ऊपर से हर धर्म
बैठा है इस तीरे अब भी बाट जोहता
चंद मटमैले धब्बोंवाला मेरा परिवार
कहाँ बिला गए,
सोने-चाँदी तथा हीरे-मोती से लदे घुड़सवार
उठती नहीं महिमामय सिंधु से कोई लहर
दिखाई नहीं देते दूर-दूर तक
सुस्वादु भोजन, खुशबूदार मसाले तथा अनिर्वचनीय सुख से लदे
पालों वाले जहाज

मैं जानता हूँ
एक ऐसे समय में कह रहा हूँ अपनी बात
जबकि मिठास की नई ऊँचाईयों को छू रही है
हर पितैली कड़वाहट
तय कर दिए गये हैं विलाप के भी मापदंड
रहे नहीं तीज-त्योहारों में
मन के कलुष को धो देनेवाले गहरे मानवीय हुड़दंग
ऐसे में जहाँ चीख को, चीख की तरह कहना
मान लिया गया है कला का सबसे बड़ा दुर्गुण
बावजूद समकालीनता के सारे दबावों के
कह रहा हूँ मैं
बंद किए जाएँ
इस पृथ्वी पर मेरे नाम से किए जा रहे
हर प्रहसन बंद किए जाएँ
विश्व के भूसे के सबसे ऊँचे शिखर से की जा रही अपीलें
लिहाजा सबसे पहले बंद की जाएँ
बंद करें ज्योतिषगण
गेंदों की तरह मेरे ग्रह-नक्षत्रों से खेलना
रोक दिए जाएँ
मानव श्रँखलाओं के ये अत्यधिक अनुशासित आयोजन
निवेदन है सभ्रांत स्त्रियों से
बंद करें अपनी विकृत फुर्सतों में
एक नए थ्रिल की तरह मेरे दुखों को देखना
बाँट रहे हैं शरणार्थी कैम्पों में
थाली, लोटा तथा ब्रेडों के पैकेट जो समाजसेवी
अनुरोध है उनसे भी
बंद करें, कंबलों में छुपे हुए चाकू बाँटना बंद करें

समेट नहीं पाते हैं मेरे छोटे-छोटे हाथ
इतना असीमित विस्तार
गहरे विक्षोभ से भर देती कीर्तिगाथाएँ
उखड़ने लगी है इस धुन को साधते-साधते अब मेरी साँसें
क्षमा करें, राष्ट्राध्यक्ष
बंद किया जाए लेकिन यह गौरवगान

दरअसल
कुछ अजीबो-गरीब हैं इच्छाएँ मेरी
तान दिया जाए खूब तन्नाकर
पृथ्वी के सबसे दूरस्थ दो ध्रुवों के बीच मेरा स्वाभिमान
गुजरे सीने के बीचों-बीच से भूमध्यरेखा
बढ़ती ही जाए माथे की हरारत
ताकि उठे,
कभी तो मेरे दुर्दिनों की तलहटी से कोई ऐसी हूक
कि बज उठे नगाड़ों सा
दसों दिशाओं में मेरा संताप

तंग आ गया हूँ
अपनी आत्मा के रंध्रों के बूँद-बूँद अनवरत रिसाव से
टकरा ही जाए मेरी दुश्चिंताओं से
इतिहास की अंतिम कक्षा में घूमती उल्का विकराल
भले ही नष्ट हो जाएँ मिट्टी में बीज
या खड़े हो जाएँ सिर के बल सारे नैतिक मूल्य
संभव नहीं लेकिन अब और
आसमान से किसी अलौकिक प्रकाश के कौंधने का इंतजार।