दो राहें / मनीष मूंदड़ा
जि़ंदगी के रास्ते में दो राहें मिलेंगी
एक राह
जहाँ मिलेगी भीड़ बेहिसाब
पर मिलेगा ना कोई सवाल, ना देने वाला कोई जवाब
हवा के रुख़ से तय होंगे फासले और फैसले वहाँ
सपनों का ना कोई मोल होगा, आँसुओं का ना कोई तोल होगा
ख़ुशियाँ खोखली
झूठी हमदर्दी
झूठे रिश्तों की होगी लम्बी टोली
टूटते चले जाओगे, जुडने की कोशिश में
उसूल बिकेंगे, ख़ुद बिकोगे
मोह, माया और समझौतों की साजि़श में
हो सकता है कुछ साथ मिले
कभी कभार एक आध सुहानी रात मिले
पर उजालों की चकाचौंध में
अकसर ख़ुश दिखने की चाहत में
मन में अंधेरों का घेरा होगा
इन सब के बीच, फिर एक दिन तुम मर जाओगे
इसी भीड़ में कहीं, हमेशा के लिए दफना दिए जाओगे
दूसरी राह,
काफी लम्बी होगी, कँटीली होगी
अकेले होगे तुम
या फिर शायद एक्का-दुक्का लोग मिल जाएँ
यहाँ ख़ुद से लडना होगा, अपने विचारों को ख़ुद चुनना होगा
पर सपनों का साथ होगा
हाँ, तुम्हारा अपना जोश तुम्हारे पास होगा
कई सवाल उठेंगे, कई जवाब भी मिलेंगे
पहली राह की भीड़ से
मगर फैसले तुम ख़ुद करोगे, अपने आँसू तुम ख़ुद पोंछोगे
कभी मन भयभीत होगा, लेकिन यह जीवन एक जीत-सा होगा
साँसे इस राह पर भी थमेंगी
मृत्यु इस राह पर भी होगी
पर तुम्हारें उसूल तुम्हारें बाद भी जि़ंदा रहेंगे
तुम ख़ुद को पाओगे, अपने होने की सही वजह समझ पाओगे
अब तुम ख़ुद तय करो, किस राह तुम जाओगे।