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दो शख़्स / पूनम तुषामड़
Kavita Kosh से
जामिया के प्रांगण में
दो शख्स अक्सर बातें करते हैं
वे एक साथ दिखाई देते हैं
और एक-सी बातें करते हैं
रहन-सहन वेश-भूषा
भी मिली-जुली है
फिर वह कौन-सी गांठ है
जो अब तक
नहीं खुली है?
एक कहता है -
मैं हिंदू हूं या मुसलमान
क्या फर्क पड़ता है?
गरीब मैं भी हूं
तुम भी
मैं भी बंटवारे का शिकार हुआ
तुम भी
मैं भी अपने घर से जुदा हुआ
तुम भी
मैंने भी अपनो को खोया
तुमने भी
मैं भी यहां सफाई कर्मी हूं
तुम भी
फिर हम दोनों में क्या अलग है?
दूसरागहरी ठण्डी सांस भरता है -
‘यह धर्म है’ जो हमें
फिर भी अलग करता है।