दो सखा / निवेदिता झा
तेरे हाथ का रंग
बाधिन के चमडे जैसा है
चितकबरा
और तुम भालू जैसा झबरा
चुहल करते दो सखाऔर भागते सरपट
कोयल के विपरीत दिशा में
कोयल सूख गयी
रेत ही रेत चारो ओर
धूप में तपते और कर्क रेखा की दिखती आकृति
पिघलाती सारी रश्मियाँ को मानो
लौटते वक्त रांची से वह रेत पायल में
और टिसती वह व्यथा मन में
दूर हो तुम भी अब, मिटती जा रही हो
उन लकीरों की तरह
जैसे कि खदान में दिखते ही नहीं काले सने हाथ
बिना बोले ये आवाज़ क्यों आयी कानोंमें
कोई नहीं बुदबुदाया ये आवाज़ कहाँ थी छिपी
छिलने लगे एक-एक परत और उतरने लगी पपडियाँ
बारुद के गंध से डूबा है गांव तुम्हारा
अखबार की सुर्खियों में था आज
क्या से क्यों हो गयी हमारी वह लाल धरती
जहाँ नंगे पैर कपडे से बने गेंद से पिट्टो खेलते थे
और अब सब कुछ उदास
चलो एक बार कहदो
काले 'कोयले की लकडी' जैसी
लगती हो तुम हर दिन
और तुम दुनिया के सबसे अच्छे सखा
कोयल इस बार बरसात में जल से भरी है
नाव वैशाली कॉपी के अंतिम पन्ने की
तुम्हारे पास अब न हो शायद
हम लौट चले उसी गांव
शहर में तो तुम ब्राह्मण, मैं संथाल
कोई नागपुरी कोई मुंडा
वहाँ हम सब थे एक जात
पलाश दहकने लगा है चटख अलग रंग में
बचपन के बिछडे दोस्त सबके सब बिखर गये
महुए की टोकरी के गिरते ही जैसे...