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दो सवैए / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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थी तितली जिनका मुख चूमती, भौंर विलोक जिन्हें ललचाते;
जो हँस के हरते जन-मानस, मंजुल वायु को जो महँकाते।
ए 'हरिऔधा' हरे दल में खिल जो लतिका में बड़ी छवि पाते;
सूख गये, बिखरे, मिले धूल में, आज वे फूल नहीं दिखलाते।1|
स्वर्ग गया अथवा शिव-लोक में, या कमलापति-धाम सिधारा;
सोम बना या बना दिननायक, या बना व्योम का कोई सितारा।
सूखती है क्यों नहीं 'हरिऔधा' विलोचन से बहती जल-धारा;
क्या हुआ, कैसे कहाँ क्यों गया वह रामजीलाल-सा बंधु हमारा।2|