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दो सॉनेट / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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(1)

कैसे ताना-बाना मन का चलता पट पर ठीक तने?
कैसे बहते पानी पर जीवन का चौरस चित्र बने?
चित्र वही, जो मिटे न घिसकर युग-घर्षण के पोतन से!
मिट्टी में मिल सड़-गलकर जो अन्तिम घड़ियाँ नहीं गिने!

उगा फूल चटियल पठार पर उपजाऊ मैदान करैे!
बंजर में भी रस को ठेले कल्पबाग निर्माण करे!
शक्ति वही, जो बन दधीचि की वज्र-अस्थि घन में छूटे;
आसुरीय तम का पट फाड़े नूतन स्वर्ण-विहान करे!

चित्र-शक्ति, जो रूप आँक दे टिसते लाल ददोरों का!
चित्र-शक्ति जो रूप आँक दे पथ के घिसते रोड़ों का!
चित्र-शक्ति क्या, जो न कभी अनुभव से अन्तर के देखे?
आलेखन हो शुक का करना चित्र लिखे कठफोड़ों का!

ढहते हुए ठूँठ-से चरमर हवामहल कमजोर गिरें!
सुन्दर और असुन्दर दोनों ठोस धरातल पर उतरें!

(2)

श्रावणी वातास डोले क्षिप्र पंख पसार;
खोलते सुर पर न क्यों उर के सुरंग सितार?
पंक में शतदल खिलाते गन्धमय अरमान;
क्यों न मानव-कुसुम करते स्नेह-अर्ध्य प्रदान?

प्रकट करती आसुरिकता विश्वग्रासी रोष;
सभ्य युग के उन्नयन में घृणा का आक्रोश!
वज्र अस्थि दधीचि की पर खोल देगी द्वार-
मुक्ति का; कर ध्वंस दुर्जय दम्भ का प्राकार।

कौंधती काली घटा में दामिनी को देख;
स्याहियों में जिन्दगी की अग्निपंखी रेख!
शृंखला की कुण्डली मंे दमकती शमशीर;
रंग-भीने कुमकुमों का बंकनोकी तीर।

बज उठा डंका नपुंसक शान्तता को चीर,
गढ़ रहा युग स्वयं नूतन सृजन की तस्वीर।

(रचना-काल: फरवरी, 1944। ‘विशाल भारत’, मार्च, 1944 और दिसम्बर 1945 में प्रकाशित।)