भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दो / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं हू अभी जवान!
कि मुझमें मस्ती है।

मुझमें भावुकता इतनी जितनी होती है बच्चों में
मुझमें सच्चाई इतनी, जितनी होती है सच्चों में
मुझमें अच्छाई इतनी जितनी होती है अच्छों में
शक हो तो देखो दाग नहीं है, लगे मेरे कच्छों में

कहने बालों को कहने दे
उनको मिली जुबान बहुत सस्ती है

कह बुजुर्ग यारो! मेरा अपमान करो मत
देव नहीं हूँ, देव तुल्य सम्मान करो मत
जग के प्राणी मात्र मीत मुझको कह दे तो,
जन्म सफल हो जाए मेरा प्राण समित हो
मैं मानव का बेटा मानव हूँ
इसलिए हमारी हस्ती है।