भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दौड़ रहे हैं और हांफ रहे हैं लोग / सांवर दइया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दौड़ रहे हैं और हांफ रहे हैं लोग।
झूठे दिलासे फिर बांट रहे हैं लोग।

भीतर-बाहर हर तरह से पिटे हैं जो,
घूम फिर उनको ही डांट बांट रहे हैं लोग!

गरूर बढ़ा इतना कि रौंदा धरती को,
आकाश पर चढ़ अब कांप रहे हैं लोग!

मिलते ही गला पकडने की कहते थे,
अब सामने बगलें झांक रहे हैं लोग!

अब कौन करेगा किसी का यकीन यहां,
जहां भी देखो बन सांप रहे हैं लोग!