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दौड़ / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

आती है लाइट,
या रोशनी, या बत्ती,
या बिजली,
अलग-अलग अर्थों में
खुलता है आभासीय संसार
चमकता है वैश्विक बाजार
दिन ने रात को भी हड़प लिया है
नकल में हम कितने माहिर हो गये हैं
रोशनी की नकल,
मनुष्य की नकल,
पेड़-पौधांे की नकल,
यंत्रों में अक्ल
कैसे-कैसे यत्न करके
ईश्वर बनने की चाहत है
सत्ता हथियाने की कोशिश है
इसीलिए अँधेरे से डर है
इस दौड़ के लिए चौबीसांे घंटे भी कम हैं
पर क्या करें?
धरा की पथ-परिक्रमा बदलनी मुश्किल है
ढूँढो कोई ऐसा ग्रह
जहाँ दिन चौबीस घंटे से ज्यादा का हो।