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दौर-ए-मसरूफियत में ये क्या हो गया? / पल्लवी मिश्रा
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दौर-ए-मसरूफियत में ये क्या हो गया?
हर आदमी आदमी से जुदा हो गया।
सर झुकाया सभी ने जिस पत्थर के आगे,
देखते ही देखते वह खुदा हो गया।
जुबाँ तो खामोश ही थी रखी, मगर -
हाल-ए-दिल छुप सका न, निगाहों से बयाँ हो गया।
उनसे क्या उम्मीद रखें जब खुद निभा नहीं पाते;
अहद का टूट जाना ही अंजाम-ए-अहद-ए-वफा हो गया।
तैरना तक आता नहीं था उस शख़्स को मगर;
ये कैस हुआ करिश्मा कि वह नाखुदा हो गया।
पड़ गईं कैसी दरारें रिश्तों के दरम्याँ?
कल तलक जो धर था मेरा अजनबी का मकाँ हो गया।
दर्द की दास्तां भी है कितनी अजीबो-गरीब
जब भी यह हद से बढ़ा है - दवा हो गया।