दौर-ए-सबूही शोला-ए-मीना रक़्साँ छाँव में तारों की / 'रविश' सिद्दीक़ी
दौर-ए-सबूही शोला-ए-मीना रक़्साँ छाँव में तारों की
पीर-ए-मुग़ाँ ने जाम उठाया ईद हुई मय-ख़्वारों की
कितने ही दर खुल जाएँगे जोश-ए-जुनूँ को बढ़ने दो
बंद रहेगा क्या दर-ए-ज़िंदाँ ख़ैर नहीं दीवारों की
काफ़िर-ए-इश्क़ समझ कर हम को कितने तूफ़ाँ उठते हैं
दिल की बात को किस से कह दें बस्ती हैं दीं-दारों की
पास-ए-अदब से इक काँटा हम ने चुना है पलकों से
आख़िर कुछ ताज़ीम थी लाज़िम दश्त-ए-वफ़ा के ख़ारों की
कितने दुख के दिन बीते हैं उस का भी था होश कहाँ
अपने हाल को कुछ समझा हूँ सूरत से ग़म-ख़्वारों की
ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ राज़ की जूया बाद-ए-सबा यकसर ग़म्माज़
बत तिरी ख़लवत तक पहुँची हम वहशी आवारों की
मौसम-ए-गुल रानाई ने दश्त में डेरे डाले हैं
तुम भी ‘रविश’ अब घर से निकलो रूत आई है बहारों की