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द्रास विजय / विजय कुमार विद्रोही

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घाटी थी निर्मम धूल भरी
सौतेली माँ से भाव धरी
पग पग पत्थर पाते बेटे
ममता ना जाने कहाँ पड़ी

पिट-पिट-पिट छप्पन की गोली
वो भावहीन आँखें बोली
तू और बता क्या करना है
ले आज खेल रक्तिम होली

सीने में रण-गंगा धारे
चल दिये पूत माँ के प्यारे
त्याग वचन घर के सारे
बिन चूक मिटाने हत्यारे

अरि तक जाना आसान कहाँ
पर ना हो ऐसा काम कहाँ
रुक जाने का अरमान कहाँ
वो चोटी था मैदान कहाँ

अब कैसे जाऐं कहाँ चढ़ें
सोच रहे सब खड़े खड़े
कैसे मारें किस तौर लड़ें
दुश्मन के गोले आन पड़े

घाटी दहली विस्फोटों से
कायर दुश्मन की चोटों से
पत्थरदिल कफ़नखसोटों से
उन बेपेंदी के लोटों से

पेशानी पर बलभर तेवर
था रक्तचाप अविचल उर्वर
आँखों में काल-काल मंज़र
वो प्रखर तेज़ हुंकार अधर

वो मुठ्ठी भर का सैनिक बल
था चलता फिरता दावानल
लो त्यागे हमने भाव सकल
चोटी पर बैठा है अरिदल

जब पोंछा छ्प्पन का शरीर
बन गऐ बाँकुरे गरल तीर
थी चोटों की पुरज़ोर पीर
संहारक आगे बढ़े वीर

फिर गोलों की बरसात बनी
तनती भर दुपहर रात बनी
सारी बातें बेबात बनी
मानों अंतिम सौगात बनी

वो घाटी ऊपर थे निहार
वो समर खड़ा था आर पार
वो झेल रहे थे बस प्रहार
वो भ्रम था या था चमत्कार

इक श्यामल छबि आन पड़ी
कर में लेकर सम्मान अड़ी
फिर बढ़ा दिया खप्पर आगे
थी भावशून्य वो मौन खड़ी

बोला दल माँ रुक आते हैं
हम तेरी प्यास मिटाते हैं
थोड़ा सा धीरज धर लो माँ
अरिरक्त प्याल भर लाते हैं

ये क्या!हमले का नाद उठा
हिंदुस्तानी औलाद उठा
कर में धारे फौलाद उठा
वो रणभेरी का नाद उठा

तड़ तड़ गोली का कटुकवार
आँखों सीनों के आर पार
गज भर दूरी लगती अपार
दुश्मन दुश्मन का अमिट रार

फिर गोलों का विस्फोट उठा
पूरा उर प्राण कचोट उठा
कर पग के टुकड़े इधर उधर
केवल घाटी पर शेष नज़र

पोरों पर गिनती के सैनिक
ध्वज धाम चले बलिदान डगर
है अंतिम साँस बची माता
है अंतिम आस बची माता

बम का प्रत्युत्तर गोलों से
गोली का उत्तर गोलों से
अब टुकड़ी की पदघात उठी
अरिदल की रूहें काँप उठीं

ये लो देखो हम आऐ हैं
अंतिम संदेशा लाऐ हैं
तूने कितने सैनिक मारे
उनका बदला दे हत्यारे

फिर बोली छप्पन की गोली
अब पिस्टल ने चुप्पी खोली
दुश्मन के सब छलनी शरीर
अब शांत हुई मन उर की पीर

साकार हुआ ये सपना है
ये द्रास शिखर अब अपना है

घाटी में गूँजा स्वर हर हर
सम्मानवान नत सर हर हर
बोला हर शुष्क अधर हर हर
हर हर धरती अम्बर हर हर

जब श्वाँस गति सामान्य हुई
वह करुण दशा तब मान्य हुई

चहुँ ओर मिला ख़ूनी मंज़र
सब देख रहे थे इधर उधर
पीड़ा अब नहीं रही कमतर
नभ पे आँखें पत्थर पर सर

नम आँखों को बरसात मिली
इक अनचाही सौगात मिली
वो चिरवियोग के साथ मिली
थी दिवा लालसा रात मिली

वो संग संग उठना सोना
वो संग संग हँसना रोना
वो हुआ नहीँ था जो होना
ऐ दोस्त ! ये आँखें खोलो ना

अब के तेरे घर जाना था
अम्मा से नज़र मिलाना था
भाभी को कुछ बतलाना था
चाचा-चाचा कहलाना था

तब त्वरित रेडियो स्वर बोला
दुखता सा हर टाँका खोला

चोपर का आना होना है
सारी लाशों को ढोना है
ये ही आदेश मिला हमको
ये दो घंटे में होना है

था पोर पोर पीड़ा का ज्वर
संदेशे बस्ती नगर - नगर
तुझ पर न्योछावर किये प्राण
था हर अनंत उर त्राण – त्राण

तेरे दामन पर दाग़ ना लगने पाया है
हमने तेरे क़दमों में शीश चढ़ाया है