द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र! 
हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण! 
हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत, 
तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!!  
निष्प्राण विगत-युग! मृतविहंग! 
जग-नीड़, शब्द औ' श्वास-हीन, 
च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों-से तुम 
झर-झर अनन्त में हो विलीन!  
कंकाल-जाल जग में फैले 
फिर नवल रुधिर,-पल्लव-लाली! 
प्राणों की मर्मर से मुखरित 
जीव की मांसल हरियाली!  
मंजरित विश्व में यौवन के 
जग कर जग का पिक, मतवाली 
निज अमर प्रणय-स्वर मदिरा से 
भर दे फिर नव-युग की प्याली!
रचनाकाल: फरवरी’१९३४