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द्रुपद का पुत्रेष्टि यज्ञ / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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जाह्नवी का अंक पावन परम रम्य पुनीत,
देख पुण्य प्रताप अक्षर पाप पुन्ज सभीत,
धार-धार प्रणम्य निर्मल तट सहज सद्धर्म-
ज्ञान-ध्यान-महान-दायक पूर्ण उज्ज्वल कर्म।

केन्द्र संस्कृति का सदा से पूज्य वर पान्चाल,
जाह्नवी का है दुलारा देश यह सब काल,
है यहीं कम्पिल सुखद मठ मन्दिरों का धाम,
साधकों सन्तों महन्तों का बना श्रीग्राम।

शान्तिप्रिय जन प्रिय प्रशासक श्री द्रुपद नृप श्रेष्ठ,
आर्य संस्कृति के दुलारे सुत प्रतिष्ठित ज्येष्ठ।
शान्त उर में भी हुई है शान्ति किन्तु मलीन,
पुत्र हीन वलक्ष कुल की छवि छटा है दीन।

दुखद चिन्तन से ग्रसित है ं श्री द्रुपद महाराज,
लग रहा है शून्य-सा सब शून्य शासन साज।
" क्या न जाने भाग्य में मेरे लिखा है राम!
क्यों न अब तक भाव मन का हो सका निष्काम?

धर्म है गार्हस्थ्य, यह है पितृ ़़ऋण का भार,
नित्य चिन्ता खड्ग में जो कर रहा है धार,
सोचता मन पुत्र बिन जीवन विफल-निःसार,
व्यर्थ ही यह भोग-वैभव व्यर्थ यह अधिकार।

रच न पाये एक भी नव दीप का संसार,
व्यर्थ यौवन सिन्धु में उठते रहे हैं ज्वार।
देखकर शैशव छटा को खिलखिलाती सृष्टि,
क्यों न फिर कर दे भला निज स्नेह की अतिवृष्टि?

किन्तु हैं जकड़े मुझे दुर्भाग्य की जंजीर,
हृदय मेरा बन चुका है दुःख का मंजीर,
भीष्म का अपमान हरपल मारता है शूल,
डाल मैं अब तक न पाया क्रोध पर निज धूल।

नित्य ही रहने लगा मन प्रखर चिन्ता ग्रस्त,
घोर तमसाविल भविष्यत देख होता त्रस्त,
क्या लिखा है भाग्य में कुछ भी न होता ज्ञान?
अब कृपा कर दो प्रभो! कुछ, हैं दुखी मन प्रान।

कर न सकते कार्य जो संसार साधन सिद्ध,
साधना करती उसे है सहज सिद्ध-प्रसिद्ध।
द्रुपद ने निश्चय किया मैं करूँगा तप घोर,
विश्व की हर कोर दूँगा एक दिन झकझोर। "

ले कठिन संकल्प नृप ने किया शिव का ध्यान,
साधना आरम्भ कर दी लिये लक्ष्य महान,
देखकर नृप का कठिन तप शम्भु हुए प्रसन्न,
आ गये वरदान देने सर्व गुण सम्पन्न।

देख शिव के पद कमल नृप हो गये सानन्द,
धन्य जीवन हो गया शिव कृपा प्राप्त अमन्द।
" जगत के सुखसागर पावन जगत के आधार,
वन्दना कैसे करूँ मैं ं घोर तम आगार।

तुम्हीं करूणा, सिन्धु पावन दीनबन्धु दयाल!
तुम्हीं कालातीत हो प्रभु! तुम्हीं काल कराल,
सतत सक्रिय है तुम्हीं से पवन का संचार,
है तुम्हीं से व्याप्त व्यापक व्योम का विस्तार।

सृष्टि का सर्जन-विसर्जन है तुम्हारे हाथ,
मैं अकिंचन एक अणु-सा जुड़ा जग के साथ।
हीन हूँ मैं दीन हूँ कपटी कुटिल हे नाथ!
स्वार्थवश ही मैॅं झुकाता हूँ सदा निज माथ।

नाथ! मेरे हृदय में प्रतिशोध का है भाव,
सह रहा हूँ आज तक मैं भीष्म का दुर्भाव,
देव! मेरे हृदय की उस आह पर दो ध्यान,
जो व्यथित है आज तक सह लोक में अपमान।

" चाहते हो क्या द्रुपद! बोलो सही सब आज?
कहो तो दे दूँ अकंटक स्वर्ग का भी राज।
मैं तुम्हारे त्याग तप से पूर्ण हूँ सन्तुष्ट
कहो निज दुख, दूर कर मैं सुख तुम्हें दूँ पुष्ट। "

" नाथ! मुझको दीजिए वह पुत्र परम समर्थ,
कर सके जो भीष्म की हर शक्ति क्षण में व्यर्थ।
दुःख की ज्वाला धधकती देखता भी कौन?
मान मर्दन सह गया मैं रह गया बस मौन।

भीष्म का पौरूष अभी तक है अजेय अभंग,
देख जिसकी वीरता सुर नर सभी हैं दंग,
दे रहा है आज तक अन्याय का जो संग
भीष्म का रण रंग ऐसे हो न सकता भंग।

है दहकती अनबरत अपमान की वह ज्वाल,
आज तक जिसको न मुझसे छीन पाया काल।
शान्ति का है एक साधन भीष्म का बस नाश,
चाहता हूँ पूर्ण कर दो यही अन्तिम आस। "

" द्रुपद! कन्या एक होगी प्राप्त तुमको वीर,
जो बनेगी पुरूष पीछे शक्ति नद गंभीर।
देवव्रत की मृत्यु का बनकर महान निमित्त,
शान्ति के शुचि नीर से शीतल करेगी चित्त।

सत्य होगा यह कथन समझो न मिथ्या रंच,
अब रहो निश्चिन्त राजन! छोड़ सकल प्रपंच।
ऋषिगणों को सिर नवाकर करो यज्ञ विधान,
यज्ञ ही करता रहा है जगत का कल्याण।

यज्ञ से ही तुम्हें कन्यारत्न होगा प्राप्त,
जो करेगा एक दिन सब दुख समूल समाप्त।
यज्ञ से बढ़कर न जग में श्रेष्ठ कोई कर्म,
यज्ञ करना ही मनुज का प्रथम पावन धर्म।

यज्ञ ही संसार का आधार है सिरमौर,
यज्ञ हीन मनुष्य पाता है न कोई ठौर।
शम्भु ने इच्छित द्रुपद को दे दिया वरदान,
हुए अन्तर्धान क्षण में दे गये गुरूज्ञान।

कर सृदृढ़ संकल्प नर यदि ठान ले कुछ ठान,
तो सुनिश्चित प्राप्त होगा लक्ष्य पूर्ण महान।
किन्तु है यदि स्वार्थ प्रेरित साधना का मूल,
तो न जीवन में खिलेगा शान्ति का सुख-फूल।

द्रुपद का पुत्रेष्टि पावन यज्ञ सफल सकाम,
प्राप्त कन्यारत्न कर नृप हो उठे सुखधाम,
किन्तु रानी ने प्रचरित कर दिया कुछ और,
"पुत्र जन्मा है महल में राजकुल-शिरमौर।"

द्र्रुपद हर्षित हो उठे वरदान पाकर पूर्ण,
दुःख चिन्ता के सभी गिरि हो चले थे पूर्ण,
देखकर नि जतप फलित श्री शम्भु का वरदान
वन्दना पद-पंकजों की कर उठे मन-प्राण।

धन्य हैं कैलाशवासी धन्य है कैलाश,
कह रहे जो बहुप्रतीक्षित पूर्ण मेरी आस।
आज उर में है भरा आनन्द ही आनन्द,
पा गया ज्यों भक्त कोई पूर्ण परमानन्द। "

पुत्र जैसे ही किये शिशु के सभी संस्कार,
पण्डितों ने श्री शिखण्डी नाम रखा विचार।
हर तरफ था उमड़ आया हर्ष सिन्धु अपार
हो उठा पांचाल में था मधुर मंगलचार।

गूँजते थे गीत पावन वेद मन्त्रोच्चार,
खिल रहे थे स्वर्ण वारिज मानसिक साभार,
उपवनों में भ्रमरदल करने लगे गुंजार
पाटलों में जग उठा मृदुहास का नव ज्वार।

हो उठा परिवेश हर्षित शान्तिमय अनुकूल,
व्योम से झरने लगे नव चन्द्रिका के फूल।
शुभ्र वसना धरित्री हरिताभ अंग-उमंग,
मलय पवन प्रफुल्ल निर्मल कान्ति अनुपम संग।

यश शिखण्डी का चतुर्दिक बढ़ रहा अम्लान,
शस्त्र-शास्त्र समस्त ज्ञान सहेज ज्योतिर्मान,
किन्तु देवव्रत शिखण्डी से न थे अन्जान,
'अरे! यह तो वही अम्बा है रखा प्रण ठान।'

नित्य ही जो कर रही मुझ पर प्रचण्ड प्रहार,
है वही मेरे मनस के द्वन्द्व का आधार।
आज तक मन में बसी है वह मधुर ललकार,
ज्यों धँ़सी है हृदय मेरे फूल की तलवार।

छिपा है जिसके हृदय में धधकता प्रतिशोध,
पन्थ पर यद्यपि खड़े हैं जन्म-मरण विरोध।
जन्म बदला पर न बदली हाय! पागल बुद्धि,
नाश कर मेरा भले यह प्राप्त कर ले शुद्धि।

धन्य अम्बा! आज तक तुझमें अटल विश्वास,
मौन में मेरे मुखर हो रहे वाग-विलास।
मिट न सकती अमर तेरी चेतना की दूब,
तुम पुरूष हो नाम से ही जानता हूँ खूब।

कौन से आघात करने रह गये हैं शेष?
जोबदलती जा रही हो व्यर्थ अपने वेश।
नित्य ही आघात करते शब्द के वे बाण,
बेधते रहते हृदय को किन्तु रक्षित प्राण।

कर न मैं कुछ भी सका निज धर्म बस असमर्थ,
था अजेय परन्तु मेरी शक्ति सत्ता व्यर्थ,
दास-सा वीरत्व जग में दीन-हीन-मलीन,
कर न मैं निर्णय सका धिक् हाय! न्याय प्रवीन।

धर्म-दर्शन-शास्त्र उन्नत शक्ति सब निरूपाय,
कौन-सी जाने विवशता जग उठी थी हाय!
जो न तुमको दे सका मैं न्याय का उपहार,
सह रहा हूँ आज तक मैं स्वयं की धिक्कार।

अस्त्र-शस्त्रों के सहे हैं वार अगणित बार,
हार को मैंने न जाना और मुझको हार।
किन्तु तेरे शब्दभेद अभेद्य को भी भेद,
चीरकर मेरे हृदय तक आ गये, पर खेद-

स्वागतोत्सुक हो न पाया एक क्षण बन ढाल,
रत्न पीड़ा के सम्हाले हाल है बेहाल।
है मिला सम्मान यद्यपि जगत में सब ओर,
किन्तु अपनों से उपेक्षा ही मिली है घोर।

मोह ने जर्जर किया मेरा सकल उर प्रान्त,
क्यों न अब तक जग सका संन्यास पुण्य निशान्त।
ज्ञान का यद्यपि मिला था मुझे पूर्ण प्रशान्त,
हाय! जीवनभर रहा मैं किसलिए दिग्भा्रन्त?

रही जीवन भवन में बस घिरी तम की रात,
चन्द्र-सा वंचित रहा देखे न सुखजलजात।
जिन्दगी थी रम्य लेकिन हो न पायी रम्य,
रह गया है शेष केवल दाह-दुःख अगम्य।

पाप मेरे पूर्वकृत शायद उठे कुछ जाग,
भाग्य में मेरे लगाते जा रहे जो आग।
सुखों का दर्शन मिला है भोग-भाग निषिद्ध,
मृत्यु की व्याकुल प्रतीक्षा कर रहा शरविद्ध।

हाथ में सबकुछ रहा पर कुछ न आया हाथ,
नाथ होकर भी रहा मैं पूर्ण रिक्त अनाथ।
घोर पश्चाताप में अब जल रहा है चित्त,
दुःख का तेरे बना मैं एक मात्र निमित्त।

विश्वविजयी शस्त्र मेरे हैं सकल नतभाल,
चाहता हूँ तू बने अब शीघ्र मेरा काल।
व्यर्थ ही इस पंच भौतिक को रहा मैं रक्ष,
ओ शिखण्डी! शस्त्र लेकर छेद मेरा वक्ष।

जाने क्यों है बार-बार स्मृति का पट खुलता,
धूमिल-धूमिल से अतीत का विम्ब उभरता।
हुई शिखण्डी जब अम्बा ही परिवत्तित हो,
हास्यास्पद हो गयी ब्याह से अपमानित हो।

अम्बे! तूने बार-बार अपमान सहा है,
सदा भाग्य ही तेरा तुझसे रूष्ट रहा है;
किन्तु न मानी हार निरन्तर जाग रही थी,
मेरे लिए और संचित कर आग रही थी।