द्रुपद सुता-खण्ड-06 / रंजना वर्मा
नीच है सुयोधन या, दुशासन धृतराष्ट्र,
भीष्म या विदुर यहाँ, सब बड़े ज्ञानी हैं।
बढ़े चढ़े बल में हैं, लड़े रिपु-दल में हैं,
करते हैं छल-बल, बड़े अभिमानी हैं।
शीश झुका बैठे मौन, पांडव हैं मेरे कौन,
कायर बने हैं सब, कहने को मानी हैं।
बोलिये पितामह है, कैसी राजनीति यह,
आप ही बचाएं कहीं, आप का न सानी है।। 16।।
बैठे हैं यहाँ पे बड़े, वीर महावीर बली,
एक अबला की कोई, लाज न बचायेगा।
कैसा बल कैसी आन, बान कैसी वीरता जो,
मौन ये सभी का सारे, कुलों को लजायेगा।
देख ये अनीति यदि, खौलतीं शिरायें नहीं,
कैसे वह क्षत्रियकारक्तकहलायेगा।
तनया हूँ भगिनी हूँ, कुल की मैं नारी इस,
मुझको बचाने को क्या, कोई नहीं आयेगा।। 17।।
गुरु-जन परि-जन, मूक सभा-जन सारे,
तड़प बिलख रही, पांडवों की रानी है।
पूछती है बार बार, वस्त्र को संभाल निज,
कौरव सभा में क्या न, कोई स्वाभिमानी है ?
गौ की द्विज अबला की, बलहीन कोई या कि,
सुने न पुकार कैसा, शक्ति युत मानी है ?
कहती पुकार इस, वीरों की सभा में आज,
बहता रगों में शुद्ध, रक्त नहींपानी है।। 18।।