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द्रुपद सुता-खण्ड-10 / रंजना वर्मा

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जन्म हीन कुल में या, किसी ऊँचे कुल में हो,
यह तो सदा ही रहा, विधि के अधीन है।
पाण्डु का मरण उसी, नियति का खेल रहा,
कारण वही जो नृप, नयनों से हीन हैं।
रंजक रहे हैं तेरे, पाँचों पाण्डु-पुत्र सदा,
आज उन्ही मानवों के, पौरुष मलीन हैं।
सच तो यही है यह, नियति अनोखी जो तू,
पांच पतियों की प्रिया, हो कर भी दीन है।। 28।।

मन्यु अपमान चिता, में है जली पावक सी,
मोम जैसी नैनों से पिघल रही द्रौपदी।
भीषण विनाश की है, जल उठी ज्वाला सम,
सीमा में बंधी शिखा सी, जल उठी द्रौपदी।
शत्रु ने लिया हो फन, पकड़ अचानक ही,
नागिन सी सभा में मचल उठी द्रौपदी।
सर्प की सुता सी हो के, घायल तड़प उठी,
आज तो स्वयं को ही, छल उठी द्रौपदी।। 29।।

शीश को झटक मानो, फहराये काले केश,
निपट अँधेरी घोर, मावस की यामिनी।
कुंतल लपट रहे, जल उठे दोनों दृग,
सघन घनों में ज्यों दमक उठी दामिनी।
रोष से हुए हैं लाल, दहके हैं दोनों गाल,
क्रोध के जलधि में बहक उठी कामिनी।
धैर्य की धुरी सी नारि, त्याग रही धीरज है,
तड़िता सी लहर चमक उठी भामिनी।। 30।।