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द्रुपद सुता-खण्ड-13 / रंजना वर्मा

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वंशजों की नीचता से, भरी ये प्रवृत्ति देख,
धीरज विवेक सब, रहे आज जल के।
मस्तक पे बल पड़ा, रोष का गरल बढ़ा,
सहन न हुए कर्म, कुटिल वे छल के।
देख दीन द्रौपदी को, क्रोधित तो हुए पर,
याद कर निज प्रण, रह गये गल के।
धरा के अजेय वीर, भीष्म हारे निज से ही,
अपनी ही बेकसी पे, नैन दोनों छलके।। 37

खड़ा हो यौधेय बार, बार हाथ जोड़ रहा,
द्वेष के अनल में प्रतीति न जलाइए।
लाज घर की ही है ये, पत्नी किसी की भी हो,
मान इस नारी का न, भीति में मिलाइये।
नीति की नहीं ये बात, बात है अनीति भरी,
नीतियों के बीच राजनीति मत लाइये।
भाइयों में शत्रुता के, बीज अब डालिये न,
है ये गृह-नीति कूटनीति न चलाइये।। 38।।

आपका अनुज आज, करता विनय बन्धु !
बन्धुता का नाता आज, मांग रहा मान है।
सभी स्वाभिमानी यहाँ, ज्ञानी वीर मानी किन्तु,
जाने क्यों रहा न उन्हें, वीरता का भान है।
नारी मात्र नारी नहीं, माता नर-जाति की है,
तुम्हें इस छोटी बात, का न बन्धु ज्ञान है।
मान यदि गया इस, का यों कौरवों के मध्य,
इस का नहीं है ये हमारा अपमान है।। 39।।